"किसी भी
देश का संविधान कितना भी अच्छा क्यूँ ना हो, अगर उसे
लागू करने वालो की नियत में खोट है तो वह कारगर सिद्ध नहीं होगा| और एक त्रुतिपूर्ण संविधान भी अगर अछे हाथो में है तो वह कारगर
सिद्ध होगा|"
ये शब्द थे, भारत के संविधान निर्माता, दलितों के मसीहा डा. भीम राव आंबेडकर के, जो भारत की जातिवादी प्रष्ठभूमि पर एकदम खरे उतारते है| क्यूंकि यहाँ कानून लागू करने वालो की नियत ही नहीं ईमान भी
जातिवादी है| इसी जातिवादी नियत और ईमान के चलते
पिछड़ी और निचली जातिंयो का पक्ष लेता एक भी कानून अपने मूल रूप में लागू नहीं हुआ
और ना ही इन जातिंयो को इन कानूनों के तहत कोई फायदा दिखाने की चेष्ठा दिखाई गई| ऐसा ही कुछ हुआ 1993 के कानून "मैला ढोने का कार्य और शुष्क शौचालय निर्माण
(निषेध) अधिनियम" के साथ |
मैला उठाना यानी इंसानी मल को
दुसरे इंसान से साफ़ करवाना, निजी शौचालयों में और सरकारी-गैर सरकारी संस्थायो
में बनाये गए सार्वजानिक शौचालयों में| सामान्य तौर पर मैला ढोना दो तरह से किया जाता है- पहला, शुष्क शोचालयों को साफ़ करके जहाँ मैला ढोने वाले व्यक्ति का काम इंसानी
मल को जमीन, पत्थर, बाल्टी या
किसी तसले से इकठ्ठा करके एक निर्धारित जगह पर फेकना होता है और दूसरा, लोगो के घरों या नगरपालिकायों के शोचालयों
में बनी मैले की टंकियो (सीवेज पिट्स) को हाथ से साफ़ करना| ये औरते कहीं-कहीं तो सुबह 6 बजे से दोपहर 1 बजे तक काम करती है बिना एक आराम की सांस लिए, और
सबसे ज्यादा दुखदाई तब होता है जब ये औरतें मैले से भरी गंधाती टोकरी को अपने सर पर उठाये इसे दूर फेंकने क
लिए गॉव- शहर से 1-2 किलोमीटर
तक बाहर जाती है| आँध्रप्रदेश की नारायण अम्मा बताती है जहाँ उन्होंने अपनी जिन्दगी के
40 साल ये मैला ढोने में निकाल दिए वहा एक बार में 400 औरते बैठ संडास किया करती थी और इन 40 सालों
में उन्हें कभी उनके नाम से नहीं बुलाया गया |
शायद ही दुनिया का कोई दूसरा
काम इतना घ्रनित और कष्टकारी
हो, जितना घ्रनित ये काम है उतनी ही घ्रनित मनिकता दिखी इस व्यवस्था
में ऊपर से नीचे तक बैठे अधिकारिंयो की इस कानून को लागू करने में| कश्मीर से कन्याकुमारी तक हर कोने में भारतीय समाज के सबसे
निचले पायदान पर रहे लोग ही मैला ढोने के काम में लगे रहे है| और इसमें भी 95-98% तक महिलाये लिप्त
है |
बाबा साहब ने एक बार और कही थी अगर किसी समाज की तरक्की देखनी
है तो पहले उस समाज की महिला की तरक्की देखो| तो
महिलायों के इस % से हम इस समाज की महिलायों की दशा आराम से समझ सकते है| महिलायों का इतनी बड़ी संख्या में इस गंदे काम में लिप्त होना
साफ़ साफ़ समाज में फैली पितृ सत्तात्मक बीमारी को दर्शाता है| जाती वाद ने जहा इस समाज को इस गंदे काम करने को मजबूर किया
वही पितृ सत्ता ने महिलायों को और गर्त में धकेल दिया| तभी कहा जाता है कि इस समाज कि महिलाएं तीन तरफ से हाशिये की
तरफ धकेली जाती है|
ये काम ही इतना कष्टकारी है कि इसने इस समाज में लगे महादलित
यानी वाल्मीकियों को ही इस प्रथा को ख़तम करने को प्रेरित नहीं किया बल्कि बाकी
दलित समाज और गैर दलित भी इस प्रथा को ख़तम करने को आगे आये| इसी कहानी की एक कड़ी है "भाषा सिंह " जिनकी किताब "अदृश्य भारत: मैला ढोने के
बजबजाते यथार्थ से मुठभेड़" भारत की इसी लड़ाई को एक अगले पायदान पर ले जाने का एक हिस्सा है |
भाषा सिंह जो अभी "नई दुनिया" में रोविंग एडिटर के
पद पर कार्यरत है, जिन्हें 2005 में मैला प्रथा पर काम करने के लिए
प्रभा दत्त फेलोशिप मिली, 2003 से मैला
ढोने की प्रथा के खिलाफ कार्यरत है| भाषा सिंह
हर उस राज्य के छोटे बड़े इलाके की हर उस संकरी जातिवादी गलियों से गुजरते हुए हर
उस महिला से मिली जिसने अपने सर पर मैले समेत पितृसत्ता और जातीवाद की टोकरी अपनी पूरी जिन्दगी बिना एक
विरोधी आवाज उठाये निकाल दी| इन्होने
मैला ढोने में लिप्त महिलायों को सिर्फ ये काम छोड़ने के लिए ही प्रेरित नहीं किया
बल्कि अपने बच्चो को पढ़ाने, एक इज्जत
का काम ढूंढने के लिए भी प्रेरित किया और इस जातिवादी और पितृसत्तात्मक
समाज से लड़ने की शक्ति भी दी |
भाषा सिंह अपनी किताब
"अदृश्य भारत" के जरिये भारत के 11 राज्यों का जिक्र करती है जहा ये मैला ढोने की
प्रथा अपने चरम पर है| ये राज्य कश्मीर, दिल्ली, बिहार, पश्चिम
बंगाल, हरयाणा, उत्तर प्रदेश,
गुजरात, राजस्थान, मध्यप्रदेश, आँध्रप्रदेश और कर्णाटक है|
इन राज्यों में काम करने वाली महिलाये बेशक अलग- अलग नामो से जानी जाती हो और बेशक इनकी जातियों के नाम अलग-अलग हो लेकिन ये सब वही गन्दा काम ही करती है और हर राज्य में एक ही बुरी नजर से देखि जाती है|
इन औरतो को कई दशक बीत जाते है अपना नाम सुने| ये लगभग हर जगह अपने काम से ही जानी जाती है| बंगाल
में डब्बूवाली, कानपुर में बाल्टीवाली, बिहार में टीनावाली, लखनऊ समेत पूरे उत्तर
भारत में कमाई का काम करने वाली, हरयाणा और पंजाब में
टोकरीवाली, दक्षिण भारत में थोट्टीकार, उडिषा में पाकी, पीती, वातल- जितने इलाके उतने नाम| इन इलाको में
इनकी जातियां भी अलग- अलग है जैसे उत्तर भारत में इन्हें भंगी, मेहतर, वाल्मीकि, धानुक,
चूड़ा, बालाशाही, मीरा, हलालखोर, हारी,
बल्टीवाली, डब्बूवाली, टीनावाली, तमिलनाडु में हेला, थोट्टी, और आंधप्रदेश तथा असम में पाकी और
मेहतर आदि कहा जाता है| अब चाहे कानपुर की शांति हो, कोलकता की हीरा, माला, लक्ष्मनिया हारी, मुन्सरी
वसफो, राजस्थान की इंदिरा, आँध्रप्रदेश
की नारायण अम्मा, कश्मीर के अब्दुल रशीद शेख, मुनीरा, या शेख महोल्ला और इन लोगो से मिलवाती मजहबी,
दिल्ली की मीना, बिहार की कुसुमी, हरयाणा की कौशल, गुजरात की पल्लवी बेन, या मध्यप्रदेश की ताजबाई फतरोड़| इन सब का इन नामो
से कोई ताल्लुक नहीं है| ये सब जानी जाती है तो अपने काम या अपने जाती के नाम से| ये सभी अपनी कहानी भी बड़े साहस से सुनती है| भाषा सिंह ने इन सभी का उल्लेख
अपनी इस किताब में बड़ी ही सुन्दरता से किया है |
भाषा सिंह एक बात
बहुत जोर डाल कर कहती है कि इस अदृश्य भारत में मैला ढोने के बजबजाते यथार्थ से
मुठभेड़ के लिए उन्हें डी-कास्ट और डी-क्लास होना पड़ेगा यानी बिना जातिहीन,
बिना वर्गहीन हुए हम इस लड़ाई में कूद ही नहीं सकते, इसे जीतने कि बात तो कोसो दूर है |
भाषा सिंह ये भी बताती है की
किस तरह वह इस प्रथा के खिलाफ काम करते करते लोग-बाग उन्हें मैला ढोने वाली
पत्रकार के रूप में बुलाने लगे| ये शुरू हुआ गुजरात से जहाँ एक महिला उन्हें माथु
मैलू पत्रकार और फिर वो जगह जगह इसी नाम से जाने जानी लगीं |
भाषा सिंह ये भी बताती है कि इस महिलायों कि जिन्दगी जितनी
नीरस, गंदगी से भरी दिनचर्या वाली होती है, उनका खाना उतना ही चटक और स्वादिष्ट | मानो सारा स्वाद मसाले के साथ पीस-भून कर, खुशबु उड़ाते हुए, बदरंग जीवन
में रस घोलने कि कोशिश हो |
भाषा सिंह इस अपनी किताब में
कुछ और अध्याय जोड़ती है जैसे- "बंद दरवाजों में फँसायी टांग" जिसमे वह
इस प्रथा को ख़तम करने के लिए सफाई कर्मचारी आन्दोलन की 11 साल की
कानूनी लड़ाई के संघर्ष को बताती है| और जैसे
"सरकारी झूट का पानी होना" में बताती है कि किस तरह सभी राज्यों ने गलत
हलफनामे दाखिल किये कि हमारे यहाँ ये मैला प्रथा होती ही नहीं है और जहा कही है
वहां उन लोगी के खिलाफ कार्यवाही कि जा रही है जबकि कभी भी किसी भी व्यक्ति या
संस्था के खिलाफ 1993 के कानून के तहत कोई कार्यवाही नहीं
की गई | और किस तरह संसद में बैठे सभी मंत्री झूट पे झूट
बोले जा रहे है कि हम लोग काम कर रहे है इस प्रथा को ख़तम करने के लिए और हर बार
एक नई समय सीमा बनाते
है और बाद में खुद ही उसे तोड़ते है | "नाम में क्या
रखा है", सच में नाम में कुछ नहीं रखा है, इस अध्याय में भाषा सिंह बताती है बेशक इस औरतो की कोई भी जाती हो या
कोई भी नाम लेकिन ये बुलाई जाती है अपने काम के नाम से ही | कुछ और अध्याय जैसे "सर पर मैला ढोना यानी.....",
"कौन है मैला ढोने वाले...", और
"शुष्क शौचालय यानी..." में भाषा सिंह
बताती है कि, किस किस तरह महिलाये और पुरुष इस काम
में लिप्त है, ये लोग ऐतिहासिक रूप से कौन है जो इस गंदे
काम से सदियों से बिना एक विरोधी स्वर के लगे हुए है, और
किस किस तरह के होते है ये शुष्क शौचालय |
इन सभी के बीच भाषा सिंह एक
अध्याय "मैला ढोने का कार्य और
शुष्क शौचालय निर्माण (निषेध) अधिनियम (1993)"
के
लिए भी रखती है जिसका नाम "19 साल पुराना कानून रखती है" जो आज तक इंतजार
मे है कि कोई इंसान आये और इसे अपने मूल रूप में लागू करे |
एक और नाम "बेजवाडा
विल्सन" |
इस नाम के बिना ना तो भाषा सिंह
कि किताब पूरी हुई थी और ना ही मेरा ये लेख पूरा होगा | बेजवाडा विल्सन जिन्होंने इस किताब के
लिए आमुख "अदृश्य को दिखने कि कोशिश" लिखा और एक गैर-सरकारी संस्था
"सफाई कर्मचारी आन्दोलन" को देश भर में चला रहे है | जिनकी बदोलत आज भारत के सफाई कर्मचारी
और मैला कर्मी अपनी आवाज बुलंद कर रहे है और धीरे धीरे इस काम को छोड़ भी रहे है और
साउथ में ये काम लगभग अपनी अंतिम साँसे गिन रहा है | बेजवाडा विल्सन खुद कोलर, कर्नाटक से
है, जिसका इस किताब में जिक्र भी है, बेजवाडा विल्सन की खुद की फैमिली ने भी लगभग 2-3 दशक तक इस काम को किया | बेजवाडा विल्सन भी भाषा सिंह के साथ
लगभग हर उस राज्य में घूमे जिन जिन का इस किताब में जिक्र है | भाषा सिंह खुद कहती है कि उनकी मदद के बिना इस किताब का पूरा
होना लगभग मुश्किल था | अगर भविष्य
में किसी का नाम रखा जायेगा कि किस की बदोलत भारत से मैला प्रथा बंद हुई तो वो एक
नाम होगा-बेजवाडा विल्सन |
कुल 240 पन्नो कि इस किताब के जरिये भाषा सिंह अदृश्य भारत की वो तस्वीर हमारे सामने पेश करती है जो दृष्य होते
हुए भी अदृश्य है| मतलब जिसे
इंसान आँखों के सामने होते हुए भी देखना नहीं चाहता| शायद
गाँधी जी के ये शब्द "बुरा मत सुनो, बुरा मत देखो,
बुरा मत कहो", इस दृष्य भारत को अदृश्य
बनाने की कड़ी का एक हिस्सा रहे होंगे |
हजारो-लाखो में कोई एक गैर-दलित ही होता है जो दलित दर्द समझता है, उसके लिए काम कर
सकता है और वह ही उसे एक साफ़-सच्चे दिल से, मानवीयता के साथ लिख सकता है | वो हजारो में एक
आज भाषा सिंह हैं
|